संत पापा लियोः येसु कभी विश्वासघात नहीं करते हैं
वाटिकन सिटी
संत पापा लियो ने अपने बुधवारीय आमदर्शन समारोह के अवसर पर संत पापा पौल षष्ठम के सभागार में एकत्रित सभी विश्वासियों और तीर्थयात्रियों का अभिवादन करते हुए कहा, प्रिय भाइयो एवं बहनों।
आइए हम सुसमाचार रूपी विद्यालय पर अपनी यात्रा जारी रखते हुए येसु के जीवन के अंतिम क्षणों का अनुसरण करें। आज मैं एक अंतरंग, नाटकीय यद्यपि अत्यधिक सच्चाई के गहरे दृश्य का जिक्र करूंगा- अंतिम व्यारी की कोठरी जहाँ येसु इस बात को प्रकट करते हैं कि बारहों में से एक उन्हें धोखा देगा। “तुम से एक जो मेरे संग भोजन कर रहा है मेरे साथ धोखा करेगा।” (मर.14.18)
सच्चाई नकारी नहीं जा सकती है
संत पापा ने कहा कि ये बहुत कठोर शब्द हैं। येसु ऐसा कहते हुए उन्हें दोषी करार नहीं देते हैं बल्कि यह प्रदर्शित करते हैं कि प्रेम जब यह सच्चा है, उस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता है। ऊपर अंतिम व्यारी की कोठरी, जहाँ थोड़े ही समय पहले सारी चीजें सतर्कता में तैयार की गई थीं, अचानक एक दर्दभरी शांति से भरी जाती है, यह उनमें सावल, संदेह, संवेदनशीलता उत्पन्न करता है। यह एक दर्द है जिसके बारे में हम सभी वाकिफ हैं जब हमारे संग हमारा कोई अति करीबी धोखेबाजी करता है।
इसके बावजूद, येसु जिस भांति उन बातों की चर्चा करते जो उनके ऊपर घटित होने को है, अपने में आश्चर्यजनक है। वे अपनी आवाज ऊंची नहीं करते हैं, न ही अपनी अंगुली उठाते हैं, और न ही यूदस का नाम ही उच्चरित करते हैं। वे इस भांति कहते हैं कि यहाँ हर कोई अपने में एक सवाल पूछ सकता है। और यह वैसा ही होता है- “वे बहुत उदास हो गये और एक-एक उनसे पूछने लगे, “कहीं मैं तो वह नहीं हूँ?”(मर.14.19)
सचेतना मुक्ति की शुरूआत है
प्रिय मित्रो, संत पापा लियो ने कहा कि यह सवाल, “कहीं मैं तो वह नहीं हूँ?” शायद हम भी पूर्ण ईमानदारी में अपने आप से पूछ सकते हैं। यह निर्दोष होने का सवाल नहीं है, बल्कि एक शिष्य के बारे में जो अपने में संवेदनशील है। यह आत्मग्लानि में रोना नहीं है लेकिन वह फुसफुसाहट है जो प्रेम करने की चाह रखता है, लेकिन इस बात से सचेत है कि इसके बदले वह हानि करता है। यही वह सचेतना है जहाँ से हमारे लिए मुक्ति की यात्रा शुरू होती है।
अनुभव की महत्ता
संत पापा ने कहा कि येसु अपमानित करते हुए निंदा नहीं करते हैं। वे सच्चाई को व्यक्त कहते हैं क्योंकि वे बचाना चाहते हैं। और बचाये जाने के लिए, हमें इसका अनुभव करना जरूरी है- इस बात को अनुभव करना की कोई उसमें संलिप्त है, हमें यह अनुभव करना आवश्यक है सारी बातों के बावजूद एक व्यक्ति को प्रेम किया जाता है, वह इसका अनुभव करें। हमें इस बात का अनुभव करने की जरूरत है कि बुराई सच है लेकिन वह अपने में अंतिम शब्द नहीं है। केवल वे जिन्होंने एक सच्चे गहरे प्रेम का अनुभव किया है अपने में धोखे के घाव को भी स्वीकार कर सकते हैं।
दुःख का ईमानदारी से स्वीकारना, मन परिवर्तन का कारण
शिष्यों की प्रतिक्रिया अपने में क्रोध नहीं बल्कि उदासी है। वे अपने में कुद्र नहीं हैं, वे दुःख का अनुभव करते हैं। यह दुःख है जिसकी उत्पत्ति संभावित रुप में शामिल होने के भाव से उत्पन्न होती है। और खास रुप से यह दुःख यदि ईमानदारीपूर्वक स्वीकार किया जाये तो यह मनपरिवर्तन का स्थल बनता है। सुसमाचार हमें बुराई को नकारने का पाठ नहीं पढ़ता है लेकिन उसे एक दुःख दायी अवसर की भांति पहचानने को कहता है जो हमें नया जन्म देता है।
इसके बाद येसु एक वाक्य को जोड़ते हैं, जो हमें विचलित करता और हमें सोचने को बाध्य करता है। “धिक्कार उस मानव को जो मावन पुत्र के संग विश्वासघात करता है। उस मनुष्य के लिए अच्छा यही होता कि वह पैदा ही नहीं हुआ होता।” (मर.14.21) निश्चित रुप में ये कठोर शब्द हैं, लेकिन हमें उसे अच्छी तरह समझने की जरुरत है। यह एक अभिशाप नहीं है बल्कि यह दुःख की कराह है। यूनानी भाषा में “धिक्कार” एक शिकायत, “ओह” एक ईमानदारी पूर्ण ढ़ग से आश्चर्य और गहरी करूणा को व्यक्त करता है।
धोखा स्वयं के साथ विश्वासघात है
संत पापा ने कहा कि हम अपने में टीका-टिप्पणी करने के आदी हैं। लेकिन ईश्वर दुःख को स्वीकार करते हैं। जब वे बुराई को देखते हैं, तो वे बदला नहीं लेते हैं, लेकिन उन्हें दुःख होता है। और “उसके लिए अच्छा यही होता कि वह जन्म ही न लिया होता” यह एक दोष देना नहीं बल्कि एक सच्चाई है जिसे हममें से हर कोई भी पहचान सकता है। यदि हम प्रेम को नकारते हैं जिसके द्वारा हमारा जन्म हुआ है, हम धोखा देते तो हम स्वयं अपने संग विश्वासघात करते हैं, इस भांति हम इस दुनिया में अपने आने के अर्थ को खो देते हैं, और अपने को मुक्ति से विमुख कर लेते हैं।
संत पापा ने कहा कि इसके बावजूद घोर अंधेरे में रहने पर भी हम ज्योति को बुझा नहीं पाते हैं। इसके विपरीत यह हमारे लिए चमकना शुरू होता है। क्योंकि यदि हम अपनी कमजोरी को पहचानते हैं, यदि हम अपने को येसु ख्रीस्त के दुःखों से स्पर्श होने देते हैं तो हम अपने में पुनर्जन्म को पाते हैं। विश्वास हमें पाप में गिरने की संभावना से नहीं बचाता है लेकिन यह हमारे लिए सदैव एक मार्ग प्रशस्त करता है जो कि करूण का मार्ग है।
येसु सदैव निष्ठावान रहते हैं
येसु को हमारी कमज़ोरियों से शर्मिंदगी नहीं होती है। वे अच्छी तरह जानते हैं कि कोई भी दोस्ती विश्वासघात के जोखिम से मुक्त नहीं है। फिर भी वे भरोसा बनाए रखते हैं। वे अपने अनुयायियों के साथ मेज़ पर बैठना जारी रखते हैं। वे रोटी तोड़ना नहीं छोड़ते, उनके लिए भी जो उन्हें धोखा देंगे। यह ईश्वर की मौन शक्ति है: वे प्रेम की मेज़ को कभी नहीं छोड़ते, तब भी नहीं जब उन्हें पता होता है कि वे अकेले रह जाएँगे।
मुक्ति की शुरूआत
प्रिय भाइयो एवं बहनों, संत पापा लियो ने कहा कि हम भी आज ईमानदारी पूर्वक अपने में पूछ सकते हैं, “कहीं वह मैं तो नहीं हूँ।” दोषीदार महसूस करने के लिए नहीं, बल्कि अपने दिलों में सच्चाई के लिए एक जगह बनाने हेतु। मुक्ति की शुरूआत यहीं से होती है: इस एहसास के साथ कि ये हम हैं जो ईश्वर पर अपना भरोसा तोड़ सकते हैं, लेकिन हम उसका निर्माण भी कर सकते हैं, उसकी रक्षा कर सकते हैं और उसे नवीनीकृत भी कर सकते हैं।
अंतत यह आशा है- जहाँ हम इस बात को जानते हैं कि यद्यपि हम असफल होते हैं लेकिन ईश्वर कभी असफल नहीं होते हैं। यदि हम उन्हें धोखा दें फिर भी वे हमें प्रेम करना कभी नहीं छोड़ते हैं। और यदि हम अपने को उनके प्रेम से नम्रता, विनम्र, घावों से स्पर्श होने देते, हमेशा वफ़ादार रहते– तो हमारा सचमुच में पुनर्जन्म हो सकता है। और हम विश्वासघातियों की तरह नहीं, बल्कि उन संतानों की तरह जीना शुरू कर सकते हैं जिन्हें हमेशा प्यार किया गया है।
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