विनीत चढाव: उत्तरी थाईलैंड के भूले-बिसरे गांवों में कलॶसिया की आशा का मिशन
कमोलथिप वोंगलिथापोर्न, लिकास न्यूज
यदि आसपास कोई अस्पताल न हो तो आप क्या करेंगे?
एक सुदूर पहाड़ी गांँव की कल्पना करें, जहाँ कई घर बाकी दुनिया से अलग-थलग, एक पहाड़ी पर बिखरे हैं। कोई पक्की सड़क नहीं। बिजली नहीं। बुनियादी जरूरतों को खरीदने के लिए एक छोटी सी दुकान भी नहीं। और सबसे बड़ी बात कि कोई अस्पताल ही नहीं।
एक रात, एक बच्चे की चीखें ठंडी हवा में गूंजने लगी, जो पीड़ा और भूख से बिलख रहा था। गांववाले इसे सुने। वे उन सिसकियों के पीछे छिपी पीड़ा को समझे। लेकिन कुछ नहीं कर सके। वे सूर्योदय का इंतजार करते रहे, वे उम्मीद करते रहे—बस उम्मीद —कि सुबह तक कोई मदद के लिए आ जाए।
यह भौतिक गरीबी की कहानी नहीं, बल्कि इससे कहीं ज्यादा क्रूर कहानी है—अवसर का अभाव। चिकित्सा देखभाल तक पहुँच नहीं। बेहतर जीवन का कोई मौका नहीं। जब चीजें बिगड़ने लगें तो बचाने का कोई माध्यम नहीं।
लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इन भूली-बिसरी जगहों पर जाना पसंद करते हैं - ताकि ऐसी जगहों पर आशा की किरण जगा सकें जहाँ कोई उम्मीद नहीं दिखती।
उम्मीद की यात्रा
करीब 50 वर्षों पहले, बेथरम धर्मसंघ के लुसिएन लैकोस्टे नामक एक काथलिक धर्माध्यक्ष ने एक युवा थाई पुरोहित, फादर निफोट थिएनविहान से कहा कि वे उनके साथ और बेथरम के अन्य पुरोहितों के साथ उत्तरी थाईलैंड के पहाड़ों में जाएँ। उनका गंतव्य माई सरियांग था, जो उस समय इतना दूर वाला गाँव था कि शहर के बहुत कम लोगों ने कभी इसका नाम सुना होगा।
यात्रा अत्यन्त कठिन थी। पहाड़ियों और घाटियों के बीच से गुज़रने वाले कच्चे रास्ते, गाँवों की ओर ले जाते थे जहाँ लोग सादा जीवन जीते, अपना भोजन खुद उपजाते और अपने परिवारों का पालन-पोषण शांतिपूर्वक करते थे। पुरोहित पर्यटक या मिशनरी के रूप में अपने विश्वास को फैलाने के लिए नहीं आए थे। वे उपचारक, मित्र और उन लोगों के लिए जीवन रेखा के रूप में आए थे जिनके पास और कोई रास्ता नहीं था।
एक रात, माई पैंग नामक एक गाँव में, सन्नाटा एक बच्चे के रोने से भंग हो गया।
भूख की आवाज
अगली सुबह, फादर पिएत्रो और एक अन्य बेथरम पुरोहित, फादर निफ़ोट के पास गये।
उन्होंने पूछा “क्या आपने कल रात एक बच्चे को रोते सुना?”
“हाँ,” फादर निफ़ोट ने उत्तर दिया।
“क्या तुम जानते हो कि वह क्यों रो रहा था?”फादर पिएत्रो ने कुछ देर रुककर कहा। उनका चेहरा दुःख से भारी था।
“वह इसलिए रो रहा था क्योंकि उसे भूख लगी थी। उसने कल से कुछ नहीं खाया है।”
फादर निफोट चुप हो गए। उन शब्दों का वजन उनके सीने में गहराई तक समा गया। ऐसी दुनिया में जहाँ कुछ लोग बिना सोचे-समझे खाना फेंक देते हैं, वहीं एक बच्चा भूखा था - युद्ध की वजह से नहीं, आपदा की वजह से भी नहीं, बल्कि इसलिए क्योंकि खाने के लिए भोजन नहीं था।
यहाँ गरीबी सिर्फ़ पैसे की वजह से नहीं थी। यह विकल्प की कमी की वजह से थी। कोई दुकान नहीं थी। कोई खाद्य आपूर्ति नहीं थी। कोई बाहरी सहायता नहीं थी। बस एक परिवार उम्मीद कर रहा था कि उनका बच्चा भूख के बावजूद सो जाए।
समय के विपरीत दौड़
अगले दिन, उन्होंने माई ला नोई नामक एक दूसरे दूरदराज के गाँव की ओर अपनी यात्रा जारी रखी। वहाँ, एक हताश आदमी उनके पास आया।
वह पैदल ही कई मील की यात्रा करके आया था, उसके साथ केवल उम्मीद और उसकी 12 वर्षीय भतीजी थी, जिसके पेट में भयंकर दर्द हो रहा था।
फादर पिएत्रो, जिन्होंने कई साल गांववालों के बीच रहकर गुजारे थे, तुरंत समझ गए।
उन्होंने कहा, "उसमें कीड़े हैं।"
समाधान सरल था, निकटतम अस्पताल की दूरी 40 किलोमीटर थी। लेकिन इस परिवार के लिए, 40 किलोमीटर एक हजार के बराबर थे। क्योंकि उनके पास वहाँ पहुँचने का कोई साधन नहीं था।
फादर निफ़ोट हिचकिचाये नहीं। वे अपनी मोटरसाइकिल पर सवार हो गए, बच्ची उनसे चिपक गई, उसकी माँ पीछे बैठी। यह खड़ी पगडंडियों से होकर एक लंबी, उबड़-खाबड़ यात्रा थी। जब वे अस्पताल पहुँचे, तो डॉक्टरों ने उसे दवा दी। कुछ ही घंटों में, उसे दर्द से राहत मिल गई।
उसे सर्जरी की जरूरत नहीं थी न ही उसे महंगे इलाज की ज़रूरत थी। उसे बस किसी ऐसे व्यक्ति की ज़रूरत थी जो उसे डॉक्टर के पास ले जाए।
फ़ादर निफ़ोट और उनके साथी पुरोहितों के लिए, यह कोई असाधारण काम नहीं था। यह उनका दिनचर्या था - अंतहीन मील, अंतहीन ज़रूरतें, और अटूट विश्वास कि दयालुता का एक काम भी किसी की ज़िंदगी बदल सकता है।
वह सवाल जिसने सब कुछ बदल दिया
नवंबर 1970 में, बिशप लैकोस्टे ने फादर निफ़ोट को दोई माई थो से दोई चांग तक एक और यात्रा पर जाने के लिए आमंत्रित किया। रास्ता खड़ी, जोखिम भरा और थका देनेवाला था। बिशप लैकोस्टे 60 से ज़्यादा उम्र के थे, लेकिन वे आगे बढ़ते रहे, कई बार गिरते रहे, लेकिन उनके साथियों ने उनकी मदद की।
वे आराम नहीं कर सकते थे। बहुत से लोगों को अभी भी उनकी ज़रूरत थी।
आखिरकार पहाड़ की चोटी पर, वे खाने के लिए रुके। बिशप ने चावल का आधा हिस्सा लिया और फादर निफ़ोट को दिया। फिर उनसे एक सवाल पूछा जो युवा पुरोहित के बाकी जीवन को परिभाषित करेगा।
"निफ़ोट... क्या आपको लगता है कि कोई भी थाई व्यक्ति इतना मूर्ख होगा कि इस तरह का काम करे?"
फादर निफोट ने तुरंत जवाब नहीं दिया। उनके छोटे भाई का हाल ही में निधन हुआ था और उनका परिवार चाहता था कि वे घर लौट आएँ। इस जीवन से - त्याग, थकावट और संघर्ष से भरे जीवन से दूर चले जाना आसान होता।
लेकिन एक लंबी चुप्पी के बाद उन्होंने अपना जवाब दिया।
उन्होंने कहा, "मैं अभी आपको नहीं बता सकता।" "लेकिन मैं अपने जीवन से जवाब दूँगा।"
हमने जो रास्ता चुना
बिशप लैकोस्टे, फादर पिएत्रो और फादर निफोट की यात्रा कभी भी पहाड़ों पर चढ़ना-उतरना मात्र नहीं थी। यह कुछ और थी—करुणा की यात्रा, देखभाल करने का साहस, देने की इच्छा।
वे सिर्फ़ पुरोहित नहीं थे। बल्कि भूले-भटके लोगों के पिता थे, बीमारों के डॉक्टर थे और उम्मीद एवं निराशा के बीच एक सेतु थे।
उनके लिए, पहाड़ों पर चढ़ना कभी भी शिखर पर पहुँचना नहीं था। यह दूसरे छोर पर इंतज़ार कर रहे लोगों तक पहुँचना था।
क्योंकि कभी-कभी, सबसे बड़ी चीज़ जो हम कर सकते हैं वह ऊँचा उठना नहीं, बल्कि घुटने टेकना तथा किसी और को ऊपर उठाना है।
क्या हम दयालुता के इस मार्ग पर चलने के लिए तैयार हैं?
Thank you for reading our article. You can keep up-to-date by subscribing to our daily newsletter. Just click here